(एसएफआई) ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाकर दावा किया है कि यह ‘भेदभावपूर्ण’ प्रकृति का है और भारतीय संवैधानिकता के मूल सिद्धांतों को ‘तबाह करने’ वाला है। संशोधित नागरिकता कानून को 10 जनवरी को अधिसूचित किया गया था। इस कानून में 31 दिसंबर 2014 से पहले धार्मिक उत्पीड़न के कारण अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से छोड़कर भारत में आने वाले हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी व इसाई धर्म के लोगों को देश की नागरिकता दिये जाने का प्रावधान है।
अपनी याचिका में एसएफआई ने संशोधित नागरिकता कानून को भारतीय संविधान का ‘उल्लंघन’ करने वाला करार दिए जाने की मांग की है। इसके अलावा, याचिका में पासपोर्ट (भारत में प्रवेश) अधिनियम 1920 और विदेशी अधिनियम 1946 के कुछ प्रावधानों को निरस्त करने की मांग करते हुए दावा किया गया है कि यह संविधान का उल्लंघन करने वाला है।
याचिका में कहा गया है, ‘याचिकाकर्ता (एसएफआई) के छात्र सदस्य नागरिकता (संशोधन) कानून 2019 बनाए जाने से बेहद परेशान हैं और इसे भारत के संवैधानिकता के मूल सिद्धांतों को तबाह करने वाले तत्व के रूप में देखते हैं। इसमें कहा गया है कि इस नए कानून के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन एवं लोगों में असंतोष की बात से पूरी तरह अवगत होने के बावजूद केंद्र सरकार ने स्पष्ट रूप से इस पर अपना रुख दोहराया और कहा कि इसमें किसी प्रकार के संशोधन अथवा इसे वापस लिए जाने का कोई सवाल ही नहीं उठता है।
याचिका में कहा गया है, ‘नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019 संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है क्योंकि यह केवल धार्मिक आधार पर भेदभाव करता है। भारत के पड़ोसी मुल्कों में धार्मिक उत्पीड़न का सामना करने वाले समान स्थिति वाले व्यक्तियों को इस कानून के लाभ से केवल इसलिए वंचित किया गया है क्योंकि वे अधिनियम में सूचीबद्ध 6 धार्मिक समुदायों के भीतर नहीं आते हैं।’
संशोधित नागरिकता कानून की वैधानिकता को चुनौती देने वाली विभिन्न याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए शीर्ष अदालत ने पिछले साल 18 दिसंबर को केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर जनवरी के दूसरे हफ्ते तक जवाब तलब किया था। नए कानून के खिलाफ दायर विभिन्न याचिकाओं पर सुनवाई की अगली तारीख अदालत ने 22 जनवरी मुकर्रर की है। बाद में केरल सरकार ने भी इस कानून के खिलाफ शीर्ष अदालत का रुख किया था।
Source: National