‘एक ऐसी सुबह जब पेड़ों पर पत्ते बहुत कम हैं। उनकी टहनियां और शाखाएं लटक रही हों। ऐसा लग रहा है जैसे कि पत्तों के रंग बदल गए हैं। पेड़ के ऊपर देखें तो ऐसा लगता है जैसे कि पीले रंग की रोशनी से सब ढक गया हो। करीब से देखने पर पता चलता है कि ये टिड्डयों का झुंड है…’
1902 में जब पर अंग्रेजों की हुकूमत थी और बना भी नहीं था तब टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट में ऊपर दी गई लाइनें छपी थीं। इस रिपोर्ट में बॉम्बे के पास ट्रॉम्बे में आम के बगीचों की तबाही को विस्तार से बताया गया है। यह रिपोर्ट याद दिलाती है कि टिड्डयों का हमला कितना भयानक हो सकता है। मौजूदा वक्त में पाकिस्तान और भारत दोनों के पंजाब प्रांत में एक बार फिर टिड्डयों की यह पुरानी महामारी देखी जा रही है। ऐसा लगता है कि एक बार फिर टिड्डयों के दल ने दस्तक दे दी है।
टिड्डियों का आक्रमण उस समय इतना आतंक मचा चुका था कि हमारे सहयोगी टाइम्स ऑफ इंडिया ने उनके बारे में एक बेहद विस्तृत स्टोरी छापी थी। 1879 में एक संवाददाता ने बताया था कि किस तरह दूसरी आपदाओं की तरह टिड्डयों का यह हमला भी कितना खौफनाक है। रिपोर्ट में लिखा गया, ‘टिड्डयों के दलों ने सूखाग्रस्त जिलों में मीलों तक सब्जियों को नष्ट कर दिया, इन जिलों में टिड्डयों की उपस्थिति का असर वहां के लोगों पर पड़ और लोगों का दिल पूरी तरह से टूट गया। उन्होंने इनसे लड़ने की कोशिश भी बंद कर दी…’
टिड्डियों के इन हमलों के बारे में बाइबल में बताया गया है। मिस्त्र में टिड्डयों के इन हमलों ने महामारी का रूप ले लिया था।
शिव का स्तूप
1929 में टाइम्स ऑफ इंडिया ने बताया था कि कुछ जिलों में इन टिड्डियों को ‘महादेव के घोड़े’ मान लिया गया। इसके चलते उन्हें जिंदा पकड़ा गया, उन्हें बहुत सम्मान दिया गया, खाना खिलाया गया और उनकी पूजा तक की गई। लोगों का मानना था कि अगर भगवान का कोप शांत हो जाता है और उनके घोड़ों की भूख मिट जाएगी तो टिड्डयों के दलों को वापस चले जाने का आदेश मिल जाएगा।
ब्रिटिश सरकार इस तरह की मान्यताओं का मजाक बना सकती थी, लेकिन उनका सबसे बड़ा रिस्पॉन्स था कि उन्होंने टिड्डयों से निपटने के लिए कुछ नहीं कियाय़ 1899 में टीओआई ने रिपोर्ट थी कि पंच महल के पुलिस सुपरिंटेंडेंट आर पी लैम्बर्ट टिड्डयों के झुंड को डराने के लिए खाली बंदूकें चला रहे थे।
1929 में टिड्डयों को नियंत्रित करने के लिए एयरक्रफ्ट के इस्तेमाल का सुझाव दिया गया लेकिन फिर इस विचार को त्याग दिया गया। ऐसा करने से पायलट्स की जान को खतरा था क्योंकि इन टिड्ड्यों के इंजन में घुसकर उसे ब्लॉक करने का डर था। एक संवाददाता ने स्वीकार किया था कि एक दूसरा सलूशन है- तारों से जकड़ी हुई स्क्रीन, जिन्हें देखने से संघर्ष करने में मर जातीं, लेकिन बहुत बड़ी संख्या में मौजूद टिड्ड्यों को इससे बहुत कम फर्क पड़ा।
घी के साथ टिड्डी रोस्ट
1879 में सबसे बेहतर प्राकृतिक तरीका एक लेखक द्वारा दिया गया। जैसे कि चिड़ियों और जानवरों को खिलाते हैं, उसी तरह टिड्डियों को भी खा लो। उन्होंने बताया, ‘टांग और पंखों को खींचो और फिर लोहे के एक बर्थन में घी के साथ रोस्ट कर लो। इसके बाद इसमें करी पाउडर, मिर्च और नमक डाल लें…’ टिड्डियों को खाना उस जगह काम आया जहां उनका हमला हुआ था। ऐसा करने से उनकी थोड़ी संख्या तो कम होती ही।
कीटविज्ञानियों के लिए यह रहस्यमयी बात थी कि अचानक से टिड्डयों के झुंड कैसे वुकल आए। रूसी कीटविज्ञानी सर बोरिस यूवारोव ने 1921 में एक महत्वपूर्ण कनेक्शन बताया। टिड्डियां और झींगुर एक ही प्रजाति के थे लेकिन सूखे और खाने की कमी के चलते झींगुर ने जो अंडे दिये उनसे टिड्डियां बन गईं। ये टिड्डियां झुंड में आतीं और खाने की तलाश में दूर तक उड़ सकती थीं। इससे ये फायदा हुआ कि टिड्डयों को कंट्रोल करने में मदद मिली क्योंकि फील्ड वर्कर्स अब उन स्थितियों का पता लगा सकते थे जब झींगुर तनाव में होते और वे टिड्डियों में बदलने वाले होते। और अगर इन्हें कंट्रोल कर लिया जाता तो बड़े झुंड कभी नहीं बनते।
इन जानकारियों के बाद 1939 में ब्रिटिश सरकार ने एक लोकस्ट वार्निंग ऑर्गनाइजेशन (LWO) का गठन किया ताकि राजस्थान, गुजरात और पंजाब के रेगिस्तानी इलाकों पर निगरानी रखी जा सके। बता दें कि LWO ने विभाजन के बाद भी काम करना जारी रखा। यह बात कि कीड़े नैशनल बॉर्डर को नहीं पहचानते, टिड्डियों के शिकारियों ने मुनाबाओ और खोकरापुर जैसे बॉर्डर पॉइंस पर बॉर्डर सिक्यॉरिटी फोर्स जैसी मिलिट्री अथॉरिटीज के साथ दोनों देशों में को-ऑर्डिनेशन बनाए रखा। इसके अलावा टिड्डियों के झुंड के बारे में दोनों देशों के बीच में वायरलैस के जरिए जानकारी देनी भी जारी रखी।
मौजूदा समय में टिड्डयों के इस हमले का विश्लेषण करना जरूरी है, लेकिन गौर करने वाली बात है कि इससे पहले सोमालिया और यमन जैसे देशों में भी टिड्डियों का यह हमला हो चुका है। यह साफ उदाहरण है कि किस तरह सरकार उस महामारी को रोकने में नाकाम हो रही है जो काफी वक्त पहले फैल चुकी है। ऑस्ट्रेलिया की बात करें तो वहां टिड्डियां ज्यादा गर्मी और सूखे की स्थिति में भी जीवित रह पा रही हैं। ऐसा लगता है कि भारत में ‘शिव के ये घोड़े’ एक बार फिर विनाश को तैयार हैं।
Source: National