नई दिल्ली -अयोध्या मामले में शुक्रवार को हुई सुनवाई में उच्चतम न्यायालय ने शिया बोर्ड के वकील को भी सुना। इस दौरान शिया बोर्ड ने कहा कि हमने इमाम तो सुन्नी रखा लेकिन मुतवल्ली हम ही थी। शिया बोर्ड मुख्य मुकदमे में पार्टी नहीं है।
देश के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पांच जजों की पीठ ने बोर्ड के वकील एमसी धींगरा से सवाल किया कि जब 1946 में उनकी अपील सिविल अदालत में खारिज हो गई थी तो उन्होंने अपील क्यों नहीं की। धींगरा ने कहा कि हम डरे हुए थे। शिया बोर्ड ने 2017 में इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की है।
उन्होंने कहा कि मस्जिद 1855 से हमारे कब्जे में थी जब 1936 में वक्फ कानून बना तो शिया और सुन्नी वक्फों की सूची बनी। हमने भी सूची बनाई और मस्जिद के वाकिफ हो गए। 1944 में इन संपत्तियों की अधिसूचना आई। इसके बाद सुन्नियों ने हमें परेशान करना शुरू कर दिया। गलती यह हुई कि हमने मस्जिद के लिए सुन्नी इमाम नियुक्त कर दिया। लेकिन मुतवल्ली हमारा ही रहा।
धींगरा ने कहा कि इसके बाद दोनों मतों के लोगों ने यहां नमाज शुरू कर दी। इसके खिलाफ हम कोर्ट गए लेकिन 1946 में अंग्रेज अदालत ने हमारे खिलाफ फैसला दिया। धींगरा ने कहा कि वह हिन्दुओं के पक्ष में हैं और मस्जिद उन्हें ही देना चाहते हैं।
हिन्दू महासभा : हिन्दू महासभा ने अपनी दलील में कहा कि विवादित ढांचे का कब्जा आजादी के पहले से ही उनके पास था। लेकिन 1934 में जब दंगे हुए और स्थल का कुछ हिस्सा गिरा दिया गया तो पूजा करने के उनके अधिकारों को सीमित कर दिया गया। अंग्रेज सरकार ने मंदिर के प्रवेश द्वार पर रेलिंग लगा दी।
उन्होंने कहा कि 1949 में भारत का संविधान बनने के बाद जब सार्वभौमिक बदल गया तो संविधान के अनुच्छेद 13 (3) के तहत ऐसे कानून जो संविधान के अनुरूप न हों निरस्त माने जाएंगे। इसके अनुसार उन्हें उपासना पूर्ण अधिकार मिलना चाहिए। यह संविधान के अनुच्छेद 25 (पूजा करने को मौलिक अधिकार) के तहत आवश्यक भी है।
उन्होंने कहा कि इस स्थान पर कभी नमाज नहीं पढ़ी गई। ये स्थल मस्जिद की शक्ल में कभी रहा ही नहीं। 1770 में अंग्रेज यात्री ट्रेफेंथेलर ने अपने विवरण में लिखा है कि यहां पूजा होती थी और हिन्दू इस स्थान की परिक्रमा करते थे। उसने इसमें नमाज पढ़ने या किसी मुस्लिम के आने का जिक्र नहीं किया है।
सवाल-जवाब
* पांच जजों की पीठ ने शिया बोर्ड के वकील से पूछा, जब 1946 में उनकी अपील सिविल अदालत में खारिज हो गई तो उन्होंने अपील क्यों नहीं की।
* हिन्दू महासभा ने सुनवाई के दौरान अपने दलील में कहा कि इस स्थान पर कभी नमाज नहीं पढ़ी गई। यह स्थल मस्जिद की शक्ल में कभी रहा ही नहीं।
राजस्व रिकॉर्ड में हेराफेरी की गई
इससे पूर्व राम जन्मस्थान पुनरोद्धर समिति के वकील पीएन मिश्रा ने कहा कि अयोध्या के राजस्व रिकॉर्ड में हेराफेरी की गई थी। इस मामले में जिला जज अदालत में पेश हुए थे और उन्होंने कहा कि 1833 की अयोध्या सेटलमेंट रिपोर्ट में जहां जन्मस्थान लिखा गया था वहां उसे जुमा मस्जिद लिख दिया गया। यह काम बंगाल से लाए गए क्लर्कों ने किया था क्योंकि वे राजस्व की आधुनिक प्रणाली को समझते थे।
मिश्रा ने कहा कि रिकॉर्ड में कई जगह मिटाने के निशान हैं और उनके ऊपर मोटी काली स्याही से लिखा गया है। इतना ही नहीं तहसील की कॉपी में भी माफी की जमीन और अजहर हुसैन लिख दिया गया। वहीं फसली में जुमा मस्जिद का रिकॉर्ड नहीं है। इसके बाद 1861 के रिकॉर्ड में भी ओवरराइटिंग और मोटी स्याही से लिखा गया है। इसमें अतिरिक्त शब्द सरकार बहादुर, अजहर हुसैन और माफी लिखा गया है। जबकि मूल दो लाइनों के बीच जगह बहुत कम थी।
1855 से पहले नमाज पढ़ने का रिकॉर्ड नहीं
राम जन्मस्थान पुनरोद्धर समिति के वकील पीएन मिश्रा ने कहा कि वर्ष 1855 में नमाज पढ़ी जाती थी लेकिन यह पुलिस के पहरे में होती थी। उससे पहले यहां नमाज पढ़ने का कोई रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं है। उन्होंने तुगलक के समय आए फारसी यात्री और विद्वान इब्नबतूता के विवरण का जिक्र किया जिसमें उसने उसे समय प्रचलित इस्लामिक कानून का जिक्र किया गया है और कहा गया है कि जबरन कब्जा की गई भूमि पर मस्जिद बनाना इस्लाम के खिलाफ है।